Monday 21 November 2016

Ambassador Of Socialism | Dr. Rammanohar Lohia | Biography Film | Offici...

 




Ambassador of Socialism

a film biography on Dr. Rammanohar Lohia Directed by Charu Sharma



The docu-fiction is a memorable journey of a simple man who created history in Indian politics. He was one of the biggest socialist who had touched every aspect of India’s life. About after five decades of Dr. Ram Manohar Lohia’s sad demise first time ever a feature length, grippingly told docu-fiction biopic is going to mesmerise the charm of his persona on the silver screen. Even on celluloid, the effect of Dr. Ram Manohar Lohia’s intense principles and easy-going personality is apparent.



Film “Ambassador of Socialism” is an absolutely priceless collection of memories & experiences from Dr. Ram Manohar Lohia’s friends, colleagues, admirers & followers ...



Featuring - Sharad Yadav (Politician), Kailash Satyarthi (Activist & Nobel Peace Prize Winner), Naini Narsimha Reddy (Home & Labour Minister, Telangana), Bhai Vaidhya (Ex-home Minister Maharashtra) B. Sudershan Reddy (Chief Justice (Retd.) Supreme Court of India), Rajinder Sachar (Chief Justice (Retd.) High Court Of Delhi), Sudhindra Bhadoria (Politician), Qurban Ali (Sr. Journalist), K. Vikram Rao (Sr. Journalist), Kuldip Nayar (Sr. Journalist), G. G. Parikh (Socialist),
C.K. Jain (Retd. Secretary General Loksabha), Bhagwati Singh (Ex – Minister Up Government), Mukhtar Anis (Ex–Minister Up Government), Satya Prakash Malaviya (Former Union Minister) and many others.

Sunday 29 July 2012

और मेरी छत टपकने लगी



आधी रात का वक्त था | मै गहरी नीद की आगोश मे गोते लगा रही थी |  दूर कही  सपनो की दुनिया मे घूम रही थी, तभी अचानक  बाद्लो की गडगडाहट की आवाज से मेरी नीद टूट गयी | उन्नीदी आखो से दीवार घडी पर नजर डाली, रात के दो बजे का वक्त था | घडी की सुईया बडी मुस्तैदी से आगे बढ रही थी |  बाद्लो की  गरज के साथ् अब बिजली की कडक भी दिखाई दे रही थी |  खिडकी से अन्दर आती बिजली की चमक, कमरे की मध्धिम रोशनी के साथ् मिलकर किसी हारर फ़िल्म का सा माहौल बना रही थी | बेड से उतर कर मै खिडकी की तरफ़् बढ गयी | बाहर का मौसम  बहुत सुहाना हो रहा था, तेज हवाये चल रही थी, बादलो से आकाश भरा हुआ था | ऐसा  लग रहा था मानो हवाओ के आदेश पर बादल इधर से उधर चहलकदमी कर रहे हो और बीच बीच मे चमकती बिजली उन्हे रास्ता  दिखाने का काम कर रही हो | 

चारो ओर अन्धेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था |  दूर से आती झीन्गरो की आवाजे और कभी कभी गली के आवारा कुत्तो के भौकने का शोर माहौल को और भी डरावना बना रहे थे | आधी रात के वक्त सुहावना मौसम भी, कभी कभी दिल की धडकन  बढा देता है | मै अपने कमरे की खिडकी से मौसम का नजारा देख् रही थी | दूर दूर तक कही कोइ नजर नही आ रहा था, काले बादल और चमकदार बिजली जरूर अपनी मौजूदगी का अहसास दिला रहे थे | कुछ देर यू  ही देखने के बाद, मै जैसे ही वापस बेड पर जाने के लिये मुडी,  तभी तेज बारिश शुरू हो गयी मै ठिठक कर रुक् गयी, और दुबारा खिडकी पर खडे होकर बाहर का नजारा देखने लगी | 

हवा के साथ् आती बारिश की बौछाऱे बहुत अच्छी लग रही थी | मै अपनी बाहे फैला कर बारिश की बूदो को महसूस करने लगी बारिश की बूदे जब् मेरे हाथो पर गिरती तो मेरे पूरे बदन मे ठंड की सिहरन सी दौड जाती | बारिश की बौछाऱे मुझे रोमान्चित  कर रही थी और उस डरावने माहौल मे भी  मुझे स्फूर्ती का अहसास दिला रही थी | तभी अचानक मेरी तन्द्रा टूट गयी | सामने पार्क के कोने मे बनी चौकीदार की झोपडी मे लालटेन की टिमटिमाहट दिखायी देने लगी | लालटेन की रोशनी मे कुछ पऱछाईय़ा हिलती डुलती दिखायी दे रही थी | कुछ छोटे बडे साये तेज़ी से इधर उधर चहलकदमी कर रहे थे | अब मेरा पूरा ध्यान उसी तरफ़् था | कुछ देर बाद चौकीदार की पत्नी झोपड़ी से बाहर आयी और कुछ बर्तन उठाकर वापस् अन्दर चली गयी | 

फिर कुछ पलो में झोपड़ी से पानी भर भर कर बाहर फ़ेका जाने लगा | उधर बारिश भी पहले से ज्यादा जोर से बरसने लगी थी | चारो ओर बस पानी ही पानी हो रहा था |  ज़हाँ एक ओर मुझे उस बारिश की फ़ुहारे अच्‍छी लग रही थी,  वही हर पल चौकीदार की झोपड़ी की ओर देखते हुए मेरी उत्‍सुकता बढ़ रही थी, कि अब आगे क्या होगा | इसी अहसास के साथ् मैने अपने कमरे में नज़र् घुमायी तो एक सुकून सा मिला | बहुत देर तक मै यु ही खिडकी पर खडी चौकीदार कि झोपड़ी में हो रही हलचल को देखती रही । 

फिर जब् कुछ ठंडक सी महसूस होने लगी तो मै कमरे में आकर बेड पर बैठ गयी | मैने बेड पर रखी चादर को उठाकऱ अपने शरीर पर लपेट लिया और दीवार् से पीठ टिकाकर आखे मूदँकऱ कुछ देर यु ही बैठी रही | अभी मुझे ऐसे बैठे कुछ ही समय हुआ था कि तभी मेरे दाये हाथ् पर पानी की एक मोटी सी बूदँ आकर गिरी | मैने चौक कर आखें खोल कर छत की ओर देखा, तो छत से पानी टपक रहा था | पानी का  टपकना मेरे लिये अपृत्‍याशित था | मै तुरन्त फ़ुर्ती  से उठकर बाथरूम में गयी और एक खाली बाल्‍टी लाकर उसी जगह ऱख दी जहाँ से पानी टपक कर मेरे बेड पर गिर रहा था । बाल्‍टी रखकर जैसे ही मै उठी तो मेरी नज़र् खिडकी से बाहर चौकीदार की झोपड़ी पर चली गयी । अब मुझे उस तकलीफ़् का अहसास हो रहा था, जो बारिश की वजह् से उस झोपड़ी में रहने वाले लोगो को हो रही थी। अभी तक जो बूदे मुझे रोमान्चित कर रही थी, वही अब मुसीबत दिख रही थी । अनायास ही मेरे होठो पर एक मुस्कान तैर गयी ।
"और इस तरह् मेरी छत भी टपकने लगी"

Sunday 19 February 2012

"मेरी खिडकी पर खडी शाम मेरा इन्तजार करती है"


बरसो हुए मैने अपने घर कि खिडकी से शाम को नही देखा!
'कैसे देखू' ?
जब्  दोपहर को दरकिनार कर शाम! 
मेरे घर की खिडकी पर आती है! 
मै वहा नही होती!
मै गुम होती हू, आफ़िस् की उबाऊ जिन्दगी में!  
बसो और ट्रैनो  की भीड भाड में! 
लोगो की कोहनिया और धक्के खाती हुई !
कभी कभी दूर तक फ़ैली सडक पर पैदल चलते हुए! 
औटो और टैक्सी का इन्तजार करती हुई!
एक बोझिल  सा थैला अपने कान्धे पर लट काये हुए!!
अपने थैले जितने भारी सपने अपनी पलको पर उठाये हुए!
इधर से उधर भागती फ़िर् ती हू, जिन्दगी की जद्दो जहद में!
अपने बिखरे बालो को समेट ती हुई! 
अपनी अस्त व्यस्त पोशाक को सहेजती हुई!
सफ़लता -असफ़लता की सीढीयो को चडते हुए! 
जब् तक मै घर की चौखट पर पहुचती हु!
"शाम" मेरी खिडकी को अलविदा कह्कर! 
रात की गोद में सिमट जाती है!
और मेरे लिये छोड जाती है, शिकायते और उळ्हाने!
यह् वही शाम है!
जिसको बचपन में देखकर मै खुशी से फ़ूली नहि समाती थी!
जिसके आते ही मै अपनी सहेलियो से मिलने के लिये खिडकी पर आ जाती थी!
खेलते-कूद्ते-हसंते-हसाते, शाम को अपना समय बिताती थी!
घनटो खिडकी पर खडे हो कर शाम को ताका करती थी !
अपनी छोटी छोटी खुशिया, सफलताये शाम के साथ् बाटा करती थी!
अपने आसू, दुख, अकेलापन भी उसे सुनाया करती थी!
अब उसी शाम को देखने, उससे मिलने के लिये तरस जाती हु!
आज जिन्दगी की दौड मे वो सुनहरी शाम के सुनहरे पल कही खो गये है!
रह गया है तो बस रात का स्याह रन्ग और सुबह की तेज चमक!

Tuesday 13 September 2011

पैसा...पैसा...पैसा

पैसा बड़ा या इन्सान 
पैसा बड़ा या भगवान
पैसा जरूरी या आराम
क्या पैसा बनाये शैतान
क्या पैसे के बिना नहीं कुछ भी संभव
क्या है कोई ऐसा जिसे नहीं पैसे की जरूरत
पैसे के बिना क्या कर सकते है आप
पैसे के बिना क्या चल सकते है आप
क्या रिश्तों में है पैसे की गर्मी
क्या पैसों में बिकती है मर्यादा, बेशर्मी
नाराजगी बिकती है पैसों में, प्यार भी बिकता है
सलाह बिकती पैसों में, दीदार बिकता है
कमजोर बिकता है पैसों में, होशियार बिकता है
बचपन बिकता है पैसों में जवानी बिकती है 
हर उम्र जवान होती है पैसे से, हर उम्मीद बयां होती है  
मैंने सुना है दुनिया में दूसरा खुदा पैसा है 'दोस्तों'
क्या वाकई यह सब पैसा कर सकता है
या हमारे हाथो  में आकर वो अपना रूप बदलता है
क्या यह पैसे की ताकत है या हमारे गुरुर से मिलकर वो इतना ताकतवर बन जाता है
कि एक इंसान को तो छोड़ दो सारी दुनिया को चलाता है?

Saturday 20 August 2011

"मैं"


मैं कौन हूँ मेरी पहचान क्या 
मेरा वजूद क्या मेरा जहाँन क्या
जब पहले पहल दुनिया में आई 
सबकी नजरो में अपने लिए प्यार और ख़ुशी पाई 
कोई मुझे दुलारता कोई मुझे पुचकारता 
गोद में लेकर हर कोई मुझे घंटों झुलाता
किसी के लिए परी थी मैं किसी के लिए अप्सरा 
किसी का  सपना  थी मै किसी की जीने की वजह 
बचपन बीता और मै योवन की दहलीज़ पर आ खड़ी हुई 
वक़्त बदल रहा  था उमंगे जवान हो रही  थी
मै बचपन की स्मृतियों को लिए आगे बढ़ रही थी 
अचानक बढ़ते कदम रुक गए थे 
सभी  अपने बेगाने लगने लग गए थे 
जो बचपन में परी कहते थे अब घूर कर देखने लगे थे 
हर छुअन बदल गयी थी हर अहसास  बदल गया था 
बाहरवालों की तो छोड़ो घरवालों का नजरिया बदल गया था 
अब मै एक खूबसूरत शरीर में तब्दील हो चुकी थी 
जिस पर हर जाने अनजाने की नीयत डोलने लग गयी थी 
अब हर वक़्त कानो में एक ही जुमला गूंजता था 
"जवान हो गयी है लड़की....कुछ सोचा है "
अब मै ना बेटी थी ना परी थी ना किसी की जान थी 
बस यही पहचान रह गयी थी मेरी कि अब मै "जवान" थी
मुझे अकेले घर से निकलने कि मनाही थी 
अजनबियों से बात करने पर पाबन्दी थी
अब हर वक़्त मेरी हर हरकत पर एक नजरबंदी थी  
मुझे भी अपने साए से डर लगने लग गया था
दुनिया का चेहरा भयानक लगने लग गया था 
सब उमंगे सारे सपने चूर होने लग गए थे 
किसे जिम्मेदार मानू इस सब का , सभी  तो एक सा कह रहे थे 
सपने धूमिल हो रहे थे मनोबल कमजोर हो रहा था 
आँखों के नीचे भी काला घेरा पड़ने लगा था 
जहाँ एक तरफ मेरा योवन ढल रहा था 
वहीँ दूसरी तरफ मेरे घरवालों का मेरी शादी पर जोर बढ़ रहा था 
जैसे तैसे घरवालों ने मुझे शादी करके घर से निकाल दिया
जैसे मै उनका हिस्सा ना होकर कोई बोझ थी जिसे बस उन्होंने टाल दिया
पति को मुझ से ज्यादा पसंद मेरे साथ लाया सामान था
वो भी औरों कि तरह मेरे मन कि खूबसूरती से अनजान था
मोसम बदल रहे थे वक़्त गुजर रहा था 
जहाँ एक ओर मेरे होटों कि चुप्पी गहरा रही थी 
वही दूसरी ओर दुनियावालों का होसला बढ़ रहा था
फिर यूँही अचानक वक़्त ने करवट ली और मेरी झोली खुशियों से भर दी
उस खुशी का सबब एक नयी जिन्दगी थी
वो मेरी नन्ही बेटी के जीवन कि शुरुआत थी
मेरी बेटी का जन्म मेरे जीवन में आशा कि नयी किरण की तरह था 
उसका वजूद मेरी घुटन और खामोश जिन्दगी में एक मरहम की तरह था
वक़्त के साथ मेरी बेटी अपनी जिन्दगी का सफ़र तय करती जा रही थी
बचपन , लड़कपन को पीछे छोड़ जवानी कि तरफ कदम बढ़ा रही थी 
अचानक एक बार फिर मेरी खुशियों और सोच पर कुठाराघात हुआ 
मेरी बेटी के बढ़ते क़दमों पर घिनौनी पाबंदियों का आगाज़ हुआ
यह देख मेरा मन तिलमिला उठा और अपनी चुप्पी को तोड़ कर बाहर आ खड़ा हुआ
जो अँधेरा मुझे निगल गया था वही मेरी बच्ची के भविष्य की ओर बढ़ रहा था
लेकिन अब मेरे विद्रोह के ज्वालामुखी का लावा उस पर पड़ रहा था
दुनिया मेरे इस नए रूप को देख कर हैरान थी
शायद  मै भी अपने इस वजूद से अबतक अनजान थी
मेरे विद्रोह का असर ज़माने पर दिखने लग गया था
मेरी बेटी को आगे बढ़ने के लिए खुला आसमान मिल गया था
आज सोचती हूँ अगर औरत अपनी "मै" को कमजोर ना समझती होती
तो शायद किसी कवि को यह कविता लिखने की जरूरत ना होती 
                                    'कि'
"औरत तेरी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी"..........
                                     ??