Saturday 20 August 2011

"मैं"


मैं कौन हूँ मेरी पहचान क्या 
मेरा वजूद क्या मेरा जहाँन क्या
जब पहले पहल दुनिया में आई 
सबकी नजरो में अपने लिए प्यार और ख़ुशी पाई 
कोई मुझे दुलारता कोई मुझे पुचकारता 
गोद में लेकर हर कोई मुझे घंटों झुलाता
किसी के लिए परी थी मैं किसी के लिए अप्सरा 
किसी का  सपना  थी मै किसी की जीने की वजह 
बचपन बीता और मै योवन की दहलीज़ पर आ खड़ी हुई 
वक़्त बदल रहा  था उमंगे जवान हो रही  थी
मै बचपन की स्मृतियों को लिए आगे बढ़ रही थी 
अचानक बढ़ते कदम रुक गए थे 
सभी  अपने बेगाने लगने लग गए थे 
जो बचपन में परी कहते थे अब घूर कर देखने लगे थे 
हर छुअन बदल गयी थी हर अहसास  बदल गया था 
बाहरवालों की तो छोड़ो घरवालों का नजरिया बदल गया था 
अब मै एक खूबसूरत शरीर में तब्दील हो चुकी थी 
जिस पर हर जाने अनजाने की नीयत डोलने लग गयी थी 
अब हर वक़्त कानो में एक ही जुमला गूंजता था 
"जवान हो गयी है लड़की....कुछ सोचा है "
अब मै ना बेटी थी ना परी थी ना किसी की जान थी 
बस यही पहचान रह गयी थी मेरी कि अब मै "जवान" थी
मुझे अकेले घर से निकलने कि मनाही थी 
अजनबियों से बात करने पर पाबन्दी थी
अब हर वक़्त मेरी हर हरकत पर एक नजरबंदी थी  
मुझे भी अपने साए से डर लगने लग गया था
दुनिया का चेहरा भयानक लगने लग गया था 
सब उमंगे सारे सपने चूर होने लग गए थे 
किसे जिम्मेदार मानू इस सब का , सभी  तो एक सा कह रहे थे 
सपने धूमिल हो रहे थे मनोबल कमजोर हो रहा था 
आँखों के नीचे भी काला घेरा पड़ने लगा था 
जहाँ एक तरफ मेरा योवन ढल रहा था 
वहीँ दूसरी तरफ मेरे घरवालों का मेरी शादी पर जोर बढ़ रहा था 
जैसे तैसे घरवालों ने मुझे शादी करके घर से निकाल दिया
जैसे मै उनका हिस्सा ना होकर कोई बोझ थी जिसे बस उन्होंने टाल दिया
पति को मुझ से ज्यादा पसंद मेरे साथ लाया सामान था
वो भी औरों कि तरह मेरे मन कि खूबसूरती से अनजान था
मोसम बदल रहे थे वक़्त गुजर रहा था 
जहाँ एक ओर मेरे होटों कि चुप्पी गहरा रही थी 
वही दूसरी ओर दुनियावालों का होसला बढ़ रहा था
फिर यूँही अचानक वक़्त ने करवट ली और मेरी झोली खुशियों से भर दी
उस खुशी का सबब एक नयी जिन्दगी थी
वो मेरी नन्ही बेटी के जीवन कि शुरुआत थी
मेरी बेटी का जन्म मेरे जीवन में आशा कि नयी किरण की तरह था 
उसका वजूद मेरी घुटन और खामोश जिन्दगी में एक मरहम की तरह था
वक़्त के साथ मेरी बेटी अपनी जिन्दगी का सफ़र तय करती जा रही थी
बचपन , लड़कपन को पीछे छोड़ जवानी कि तरफ कदम बढ़ा रही थी 
अचानक एक बार फिर मेरी खुशियों और सोच पर कुठाराघात हुआ 
मेरी बेटी के बढ़ते क़दमों पर घिनौनी पाबंदियों का आगाज़ हुआ
यह देख मेरा मन तिलमिला उठा और अपनी चुप्पी को तोड़ कर बाहर आ खड़ा हुआ
जो अँधेरा मुझे निगल गया था वही मेरी बच्ची के भविष्य की ओर बढ़ रहा था
लेकिन अब मेरे विद्रोह के ज्वालामुखी का लावा उस पर पड़ रहा था
दुनिया मेरे इस नए रूप को देख कर हैरान थी
शायद  मै भी अपने इस वजूद से अबतक अनजान थी
मेरे विद्रोह का असर ज़माने पर दिखने लग गया था
मेरी बेटी को आगे बढ़ने के लिए खुला आसमान मिल गया था
आज सोचती हूँ अगर औरत अपनी "मै" को कमजोर ना समझती होती
तो शायद किसी कवि को यह कविता लिखने की जरूरत ना होती 
                                    'कि'
"औरत तेरी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी"..........
                                     ??