Sunday 19 February 2012

"मेरी खिडकी पर खडी शाम मेरा इन्तजार करती है"


बरसो हुए मैने अपने घर कि खिडकी से शाम को नही देखा!
'कैसे देखू' ?
जब्  दोपहर को दरकिनार कर शाम! 
मेरे घर की खिडकी पर आती है! 
मै वहा नही होती!
मै गुम होती हू, आफ़िस् की उबाऊ जिन्दगी में!  
बसो और ट्रैनो  की भीड भाड में! 
लोगो की कोहनिया और धक्के खाती हुई !
कभी कभी दूर तक फ़ैली सडक पर पैदल चलते हुए! 
औटो और टैक्सी का इन्तजार करती हुई!
एक बोझिल  सा थैला अपने कान्धे पर लट काये हुए!!
अपने थैले जितने भारी सपने अपनी पलको पर उठाये हुए!
इधर से उधर भागती फ़िर् ती हू, जिन्दगी की जद्दो जहद में!
अपने बिखरे बालो को समेट ती हुई! 
अपनी अस्त व्यस्त पोशाक को सहेजती हुई!
सफ़लता -असफ़लता की सीढीयो को चडते हुए! 
जब् तक मै घर की चौखट पर पहुचती हु!
"शाम" मेरी खिडकी को अलविदा कह्कर! 
रात की गोद में सिमट जाती है!
और मेरे लिये छोड जाती है, शिकायते और उळ्हाने!
यह् वही शाम है!
जिसको बचपन में देखकर मै खुशी से फ़ूली नहि समाती थी!
जिसके आते ही मै अपनी सहेलियो से मिलने के लिये खिडकी पर आ जाती थी!
खेलते-कूद्ते-हसंते-हसाते, शाम को अपना समय बिताती थी!
घनटो खिडकी पर खडे हो कर शाम को ताका करती थी !
अपनी छोटी छोटी खुशिया, सफलताये शाम के साथ् बाटा करती थी!
अपने आसू, दुख, अकेलापन भी उसे सुनाया करती थी!
अब उसी शाम को देखने, उससे मिलने के लिये तरस जाती हु!
आज जिन्दगी की दौड मे वो सुनहरी शाम के सुनहरे पल कही खो गये है!
रह गया है तो बस रात का स्याह रन्ग और सुबह की तेज चमक!